एक ही जिंदगी में

 एक ही जिंदगी में कुछ बदला नही
सब कुछ पराया फिर भी गीला नहीं

छोटी उंगलिया जाने कब छूटी है
और तुम कभी फिसले ही नहीं

फासले ये रिश्तों के अब हुए है
उलझनों में खुश मत जगा नींद से

कौन यु कायल ढुंढता उस पन्ने में
मैं तो बस ढल गयी सुरज से पहले

पिरोये तुम ने जिंदगी के ऐसे धागे
यकीनन अभिलाषा तुम्हारी मुस्कान ही

बस्स सब बुरे अफसाने मिट जाये
अफसोस का मौका उसे मिले शायद

 प्रियांका वस्त

Published by प्रतिबिंबित मन

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